पूर्व की गल्तियाँ


पूर्व की गल्तियाँ अब दोहराई जायं!                
रामचरितमानस में एक चौपाई है:
जब-जब होई धरम कै हानी। बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।।
करहि अनीति जाइ नहि बरनी। सीदहि विप्र धेनु सुर धरनी।।
तब-तब प्रभु धरि विविध शरीरा। हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा।।
          अर्थात् जब-जब धर्म का हास होता है, नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं तथा ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता। वे ब्राह्मण, गौ, देवता और पृथ्वी को कष्ट देते हैं, तब-तब कृपानिधान प्रभु भांति-भांति के दिव्य शरीर धारण करके सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।
          हर युग में विभिन्न चेतनाएं इस धरती पर मानव रूप में आईं और अपना कार्य करके चली गईं। त्रेतायुग में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम आए, समाज को मर्यादा का पाठ पढ़ाया और रामराज्य की स्थापना की। परन्तु, समाज उन्हें नहीं पहिचान सका। उन्हें मात्र अयोध्या का राजा ही मान पाया, अवतार नहीं मान सका। जब राक्षसों का वध करके धर्म की स्थापना की और प्रकृति में विलीन हो गये, तब समाज की आंखें खुलीं, किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। समाज उनके सान्निध्य से वंचित रह गया। बाद में उनके मंदिर बनवाये, उनमें अच्छी-अच्छी उनकी मूर्तियां स्थापित की, उनके सामने भजन-पूजन किया और आंसू बहाए। परन्तु, वह प्राप्त हो सका, जो उनके प्रत्यक्ष रहने पर प्राप्त हो सकता था। इसी तरह भगवान् श्रीकृष्ण आये, सभी में प्रेम बांटा तथा कर्म का ज्ञान दिया। साथ ही श्रीमद्भगवद्गीता जैसा महान् ग्रन्थ समाज को प्रदान किया। फिर भी समाज उन्हें भी पहिचान नहीं सका। अंत में उन्होंने अपना विराट् स्वरूप भी दिखलाया, असुरत्व के नाश हेतु महाभारत जैसा युद्ध भी रचाया और उन्होनें यह भी कहा, ‘‘मैं ही ब्रह्म हूँ।’’ परन्तु, फिर भी समाज उन्हें समझ नहीं सका और वे भी अपना कार्य समाप्त करके अर्थात् पृथ्वी का सन्तुलन बनाकर वापस प्रकृति में विलीन हो गये। बाद में जब उनके कार्यों का विश्लेषण किया गया, तो समझ में आया कि वे एक युगपुरुष थे परन्तु वह अपने गोलोक धाम जा चुके थे। एक बार फिर भूल हो चुकी थी, जिसका कोई उपचार नहीं था। समाज इस सोच में रहा कि कहां राम की शक्ति, पराक्रम तथा मर्यादा का पाठ और कहाँ श्रीकृष्ण का एकदम भिन्न रूप में प्रेम कर्म का पाठ ? उन्हें अर्जुन के सारथी और पाण्डवों के मित्र तक ही सीमित कर दिया गया। लोग उन्हें भी सामान्य राजा ही समझे। उनके जाने के बाद समाज ने अनेकों सुन्दर-सुन्दर मंदिर बनवाये, प्रतिदिन आरती की, आँसू बहाये, परन्तु उनकी सशरीर नजदीकता के क्षण तो नहीं सके। एक बार फिर समाज गल्ती कर चुका था जिसका कोई सुधार नहीं था, मात्र बचा था, तो सिर्फ उनका गुणागान, जो आज भी समाज अपने-अपने तरह से कर रहा है।
          प्रकृति सदा दोनों रूपों में उपस्थित रहती है। दिन-रात, अच्छाई-बुराई, पाप-पुण्य एवं धर्म-अधर्म जब तक सन्तुलन में रहते हैं तब तक शांति रहती है। जब भी अधर्म का पलड़ा भारी होता है तो असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और प्रकृति में विनाश का दृश्य उपस्थित हो जाता है।
          आज मानव प्रकृति के विपरीत कार्य करने लगा है। इस धरती पर पूरी तरह से अधर्म का राज छाया हुआ है। चाहे जिस क्षेत्र को देखें, धर्म की जगह अधर्म को ही स्थान दिया जा रहा है। आज अधर्म को ही धर्म मान लिया गया है। जब-जब मनुष्य मोक्ष सत्य का मार्ग छोड़कर विनाश तथा असत्य के मार्ग पर बढ़ने लगता है, तब-तब इस धरती पर नवीन चेतनाओं का अवतरण होता ही है, यह अक्षरशः सत्य है।
          आज अगर समाज की दशा देखी जाये, तो चारों ओर अधर्म का राज्य पूरी तरह से फल-फूल रहा है। कोई व्यक्ति भजन-पूजन नहीं करना चाहता। वह स्वयं को ही भगवान् मान रहा है एवं अपने द्वारा निर्मित विज्ञान को नवीन सृष्टि रचना, जबकि यह ध्रुव सत्य है कि ‘‘ज्ञान से विज्ञान निर्मित होता है, विज्ञान से ज्ञान नहीं। फिर भी, समाज पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। चारों तरफ व्यभिचार फैला हुआ है। आज स्थिति यह बन गई है कि एक बाप अपनी बेटी के साथ कुकर्म करने से नहीं चूक रहा है, और एक भाई अपनी ही बहिन से रास रचा रहा है। एक भाई अपने दूसरे भाई की हत्या कर रहा है। बेटा माँ-बाप को मार-पीटकर घर से निकाल रहा है। मानव अपने भौतिक स्वार्थों में इतना डूब चुका हैं कि उसके पास समय ही नहीं है कि किसी देवी-देवता की आराधना करे। आज जैसी कलियुग की भयावहता और क्या होगी ? जातीय दंगे, लूट-पाट, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, हत्या एवं स्वार्थपरता अपनी चरम सीमा पर है। जिस तरह रामायण में, कल्कि पुराण में तथा महाभारत के वनपर्व में कलियुग का विवरण है, उसी तरह की पूर्ण स्थिति चल रही है। और, जब-जब भी ऐसी विपरीत स्थिति आती है, तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी पूरी तरह से इस स्थिति को नियंत्रित नहीं कर सकते। तब वे भी माँ शक्ति की ही आराधना करते हैं। वह समस्त देवाधिदेवों द्वारा पूजित आदिशक्ति, प्रकृतिस्वरूपा, परमसत्ता जगत् जननी माँ भगवती जगदम्बा है, जिसके अन्दर धर्म-अधर्म, अच्छाई-बुराई, सच-झूठ, दैवी-आसुरी शक्तियां तथा दिन-रात एवं समस्त विधायें समाहित हैं। वह इस तरह के हजारों ब्रह्मांडों की रचना पालन करने वाली है। और, वही आदिशक्ति माता इस असन्तुलन को सन्तुलित करने, अधर्म को पीकर धर्म की स्थापना करने, भौतिकता के स्थान पर अध्यात्म का रास्ता दिखाने और मानव को मोक्ष की तरफ अग्रसर करने हेतु समय-समय पर अपनी शक्तियों को मानव रूप में भगवान् या अल्लाह, मसीहा, वाहेगुरु या गॉड आदि अलग-अलग नामों से इस पृथ्वी पर भेजती है। इन्हें हम अवतारी चेतना या भगवान् के नाम से पूजते हैं। यह क्रम हर युग में होता आया है। जैसे त्रेता में भगवान् श्रीराम, द्वापर में भगवान् श्रीकृष्ण कलियुग में भगवान् ‘‘श्रीकल्कि अवतारको प्राचीनतम ग्रन्थों एवं पुराणों ने स्वीकारा है। इस कलियुगी वातावरण को समाप्त करने वाले अवतार के सम्बन्ध में आज से 400-500 वर्ष पहले के दिव्यदर्शी भविष्यवक्ताओं के द्वारा स्पष्ट कर दिया गया था।
          युग परिवर्तन के समय तीव्र प्राकृतिक हलचल होती है। भूकम्प, शीतप्रकोप, अनावृष्टि, तूफान, भुखमरी, जनसंख्यावृद्धि, अकाल, अराजकता के क्रम उपस्थित हो जाते हैं और असंख्य आत्मायें दुःखी पीडित हो जाती हैं। तब इस भयावहता को दूर करने सत्यधर्म की स्थापना करने के लिये हर युग में किसी चेतना का अवतरण होता है। एक बार फिर इतिहास दोहराया जा रहा है। एक नवीन चेतना के जन्म को समस्त वेद-पुराण विश्व स्तरीय देश-विदेश के भविष्यवक्ताओं ने अपनी-अपनी भविष्यवाणियों में स्वीकारा है। उस चेतना का जन्म हो चुका है। निश्चय ही पूर्व के अवतारों की तरह यह भी चीख-चीख कर स्पष्ट अपने विषय में कह रहा होगा। परन्तु, समाज एक बार फिर गलती दोहरा रहा है। क्योंकि समाज तो उन्हीं चिन्तनों में भटक रहा है कि यह अवतार भी भगवान् श्रीराम एवं भगवान् श्रीकृष्ण के जैसा ही होगा, तथा उनकी कार्य शैली भी उन्हीं के जैसी ही होगी। परन्तु, अगर उन दोनों अवतारों के कार्य ही एक दूसरे से नहीं मेल खाते हैं, तो यह कैसे सम्भव है कि इस अवतार के कार्य तथा समाज में उसका रहन-सहन, क्रिया-कलाप पहले के अवतारों से मेल खायेगा ? समाज फिर भूल दोहरा रहा है, क्योंकि हमारी कल्पनायें पूर्व के समाज की भांति ही हैं। इस कारण दुबारा हम यह गल्तियाँ दोहरा रहे है। हमें हर हालत में गलतियाँ सुधारनी है एवं उस चेतना (अवतार) को खोजना है। निश्चय ही देश विदेश के भविष्यवक्ता हमारी पूरी तरह से मदद कर रहे हैं। अगर आप और हम उनकी भविष्यवाणियों पर पूरी तरह से गौर करें वेदों-पुराणों में वर्णित अवतार के सम्बन्ध में तथ्य खोजें, तो अवश्य ही समय रहते हम उस चेतना को पहचान सकते हैं एवं मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
      जब हम धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ते हैं, तो पता चलता है कि मानव जीवन सौभाग्य से प्राप्त होता है। यही मानव रूप देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। वे इसे पाने के लिए तरसते हैं और विशेष अवसर आने पर ही इस रूप में अवतरित होते हैं। दैवी गुणों के बावजूद यह मनुष्य अपने मूल उद्देश्य को भूलकर प्रायः भौतिक मृगमरीचिका में ही भटकता रहता है। अधिकांश मानव पेट की क्षुधा को शांत करने वंशवृद्धि के कोल्हू में पिसते हुये जीवन काट लेना ही लक्ष्य समझते है।
          किसी दार्शनिक ने कल्पना की है कि यह पृथ्वी परमात्मा का शरीर है, स्वर्ग मस्तक है, सूर्य चन्द्र उसकी आँखें हैं आकाश मन है। लेकिन, आज का मानव इन तथ्यों को मानने के लिए तनिक भी तैयार नहीं है, उसे तो मात्र प्रमाणों पर ही यकीन है। इसीलिए वह भटकाव के मार्ग पर चल रहा है। जो समय चला गया, वह पुनः लौटकर कब आता है, यह कुछ निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता, ठीक जिस तरह नदी के प्रवाह में बहा हुआ पानी कहा जायेगा, यह कहा नहीं जा सकता है।
          अतः अभी समय है, उस अवतरण को पहचानने का। नहीं तो पूर्व समाज की तरह ही पछताना पड़ सकता है। मोह-माया के उस मजबूत बन्धन को काट डालिये एवं उठ खडे़ होइये, नवयुग के नये अवतरण के स्वागत के लिये। इससे हमें मोक्ष की प्राप्ति होगी हम पुनः-पुनः अपनी इच्छा से मानव योनि में जन्म लेकर हर बार अवतार के समीप रहकर सही जीवन जीने की कला सीख सकेंगे।
     लेखक इन सभी तथ्यों भविष्वाणियों में गहराई से डूबा है सत्य की खोज की है। आप सब भी इस सत्य को अपना सकें, ऐसी ही कामना अपने परम आराध्य सद्गुरुदेव माता भगवती से करता हूं।

0 comments:

Post a Comment